रविवार, 30 अक्तूबर 2016

तुम्हारे नाम

द्वार-देहरी जलता जो ,
हर दीप तुम्हारे नाम है .
अन्तर्मन से निकला जो ,
हर गीत तुम्हारे नाम है .

तुमको लगें दुआएं सारी .
पूरी हों उम्मीदें सारी .
रहे हौसला अविकल अविजित,
रहो सदा दुश्मन पर भारी .
सूरज की जो अँधियारे पर ,
जीत तुम्हारे नाम है .

अपना सुख-संसार छोड़,
चल पड़े देश की राहों में .
जान हथेली पर रखली है ,
सीमा सिर्फ निगाहों में .
हुए पराजित दमित शत्रु की
भीत तुम्हारे नाम है .

गर्वित है मन पर सोच यही है ,
शब्द भला किस काम के .
फिर भी दीप जलाए हमने ,
सिर्फ तुम्हारे नाम के .
हम सब ऋणी तुम्हारे ,
बस यह प्रीति तुम्हारे नाम है .
वीर जवानो मेरा तो ,
हर गीत तुम्हारे नाम है .


गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

आम आदमी


तंगहाली में ,
ख़्वाहिशों की कमी हूँ
मैं आम आदमी हूँ ।

मैं भीड का एक हिस्सा हूँ
खून से लिखा किस्सा हूँ ।
फुटपाथ पर चलता हूँ
पर कारों तले दलता हूँ ।

दुर्घटना होती है तब
आँकडों में गिना जाता हूँ
मैं केवल  
आदमी के नाम जाना जाता हूँ.

व्यक्तिवाचक नहीं सिर्फ जातिवाचक हूँ
जरूरतों के नाम पर मैं
सिर्फ याचक हूँ ।
अपरिचित हूँ इसलिये
कतराता हूँ उजाले से
दूसरों के मुँह के निवाले से ।

हिसाब में कमजोर हूँ
संतप्त मन का शोर हूँ
नक्कारखाने में जैसे
तूती की आवाज
मेरे हिस्से में
आता नही कभी ताज ।

आगे रहता हूँ नारे लगाने
पर कतार में
सदा पीछे जगह पाता हूँ
अपराधी नही हूँ पर
सजा पाता हूँ ।
निस्संगता के साथ हमेशा
नींव में खपा दिया जाता हूँ
उठती हैँ ऊँची इमारतें मेरी ही पीठ पर
अधिकार नही है मेरा किसी जीत पर ।

मैं शामिल नही हूँ घोटालों में
रिश्वत, दलाली या व्यभिचार के परनालों में
फिर भी परोसा जाता है मेरी थाली में
साम्प्रदायिक जहर ।
कुदरत के कहर
सहने मजबूर हूँ ।
षडयन्त्रों से दूर हूँ ।
पर पीसा जाता हूँ मैं ही
अवरोधों की चक्की में ।
फरेब मक्कार ,दुर्घटना बलात्कार
सबका शिकार ,
सिर्फ मैं ।
किताबें कहतीं हैं
कि सरकार मेरी है
किताबें झूठ कहतीं हैं
हरे भरे पेड को ठूँठ कहतीं हैं ।

आखिरी बस भी छोडकर जाती है
सिर्फ धूल का गुबार
मेरे लिये है सिर्फ इन्तज़ार ।
गर्द से भरा है सपनों का गाँव
धीरज के पाँव
उखड जाते हैं अक्सर 
मयस्सर नही
दो गज जमीन भी 
कही जमने के लिये .
फिर भी कहीं बची हुई नमी हूँ 
मैं आम आदमी हूँ ।

( शीघ्र प्रकाश्य 'अजनबी शहर में' काव्य-संग्रह से )