शनिवार, 12 जुलाई 2014

सूखा --तीन चित्र

लेकिन वे दिन गए जब सावन का नाम लेते ही  बादल , वर्षा ,बिजली ,हरियाली मोर पपीहा आदि सब आँखों में सजीव होउठते थे । अब सावन तो आगया है । पर गलियों में धूल ही नही उड़ रही , कान-कनपटियों को थपेड़े मारती लू भी चल रही है । सुबह आठ बजे ही धूप इस तरह तपाती है तो दोपहर की तपन कैसी होगी । शाम छह बजे तक धूप जैसे कोड़े बरसाती रहती है ।
यह कविता सन् 1984 में लिखी थी इसलिये इसमें नयापन तो नही है पर प्रासंगिक है । आज यहाँ ( ग्वालियर मुरैना क्षेत्र में ) यही हाल है ।
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(1)
लगभग निर्वस्त्र सा
निरभ्र आसमान 
उम्मीदों को चिढ़ाता
दिन में दर्पण दिखा दिखाकर
आँखें चुँधियाता 
गर्म साँसों से
तम मन झुलसाता
रात में निर्लज्जता से
तारों के रोम दिखाता
आषाढ़-सावन के खुले मैदान में
सरेआम हरियाली की चूनर खींच रहा है
विवश त्रस्त धरती पांचाली 
पुकारती है 'घनश्याम' को ।
(2)
सूरज के आतंक से त्रस्त
भेज रही है चिट्ठियाँ 
सहमी सिकुड़ी नदी तलैयाँ
लेकिन बादलों का रवैया
आलसी पुलिस की तरह
आते हैं आते हैं--कहकर 
सिर्फ बहलाते हैं
(3)
शैशव में ही सूखाग्रस्त
दुर्बल बच्चे सी फसलें
बीमार ,मुरझायी खड़ी हैं ।
कुपोषण से घबराई
उपचार के लिये
जैसे फर्श पर ही
पड़ी है ।
पर बादलों का व्यवहार ,
किसी चलताऊ दवाखाने का उपचार ।

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

देवता प्यासे ही सोगए !

आज देवशयनी एकादशी थी। माना जाता है कि अब देवता शयन करेंगे । चार माह बाद 'देवउठनी' एकादशी (दीपावली के ग्यारहवे दिन) को उनकी नींद टूटेगी। तब तक सगाई-ब्याह आदि कार्य सम्पन्न नही होंगे । ये चार महीने (चौमासा) बरसात के हैं। कहा जासकता है कि देवशयनी एकादशी वर्षाऋुतु के आगमन की विधिवत् सूचना है। हमारे ग्रामीण क्षेत्र में इस दिन की एक रोचक मान्यता है। 
सुबह नहाकर खुले आँगन में गोबर से लीपकर शुद्ध मिट्टी से बनाकर पाँच देवताओं को स्थापित किया जाता है ।
(' तीन देवता तो सुने हैं। ये पाँच देवता कौनसे हैं'---इस जिज्ञासा का समाधान गाँव के एक पंडित जी कुछ यों देते हैं --
"सदा 'भवानी' दाहिनी गौरी पुत्र 'गणेश' ,पाँच देव रक्षा करें 'ब्रह्मा विष्णु महेश।'" दाहिनी यानी अनुकूल)

हल्दी ,रोली ,दूब, अक्षत आदि से पूजा कर हलुआ-पूरी का भोग लगाया जाता है लेकिन जल नही दिया जाता। सामान्यतः भोग लगाने के बाद जल तो समर्पित किया ही जाता है। बचपन में मैंने एक दिन माँ को जल से भरा 'गंगासागर' लाकर दिया । मैंने सोचा कि माँ भूल गईं हैं । हमेशा 'अग्यारी' करने के बाद जल तो चढ़ाती ही हैं लेकिन वे लोटा को दूर ही रखने का संकेत करती हुई बोलीं---"आज देवताओं को केवल भोजन कराना है पानी नही पिलाना है ।"
"ऐ लो ! ऐसा कही होता है कि खाना खिलादो और पानी मत दो ! भला पानी कहाँ से पिएंगे तुम्हारे देवता?" 
"पानी वे अपनेआप पियेंगे।"
"कहाँ से? कैसे?"
"बादलों से माँगकर और क्या ।"
मैं चकित । लेकिन तब और भी अचरज हुआ कि शाम होने से पहले ही पानी बरस गया । इतना कि मिट्टी से बने देवता पूरे आँगन में फैल गए ।
इतना विश्वास ! ऐसी अधिकारपूर्ण हठ ! कि उसे टालने का सवाल ही न उठे । मैंने वर्षों तक यही होते देखा कि किसी और दिन बरसे या न बरसे लेकिन देवशयनी एकादशी जरूर पानी में सराबोर होती।
दादी कहतीं थीं कि "देवता बरसा के जल से ही 'तिरपत' होते हैं।" चातक के लिये भी यही कहा जाता था ।
मुझे लगा कि परम्पराएं जब गहन विश्वास के साथ निभाई जातीं हैं तो वे व्यर्थ नही जातीं। ईश्वर की आराधना में भी यही बात है। क्योंकि विश्वास ईश्वर का ही एक रूप है ।
हमारे गाँव में इसी तरह की एक और प्रथा थी। जिस वर्ष वर्षा की प्रतीक्षा सहनशीलता के पार होने लगती थी तब इन्द्र देवता को मनाने के लिये 'रोटी बनाने' का आयोजन होता था । चौकीदार पूरे गाँव में सूचना कर देता था कि आज अमुक मैदान या खलिहान में 'रोटी' बनेगी । उस दिन न कोई ऊँचा होता न नीचा । न अमीर न गरीब । सभी परिवार ( स्त्री-पुरुष मिलकर) एक साथ बनजारों की तरह गाँव से दूर पेड़ों के नीचे उपले जलाकर अपनी रोटियाँ बनाते थे। साथ में सब्जी , नही तो आलू या बैंगन का भुर्ता ही सब्जी का काम देता। उसीसे भगवान को भोग लगाते । प्यासी गायों की रँभाते हुए बादलों को पुकारते और फिर निर्जल ही कीर्तन करने बैठ जाते --"अब मेरी लै लेउ खबर गिरधारी ...।" 
ढोलक ,मंजीरा, झींका ,चिमटा (वाद्य ) के साथ भजनों का समां बँधता और ऐसी तल्लीनता से कि वह बादलों की गड़गड़ाहट और मोटी-मोटी बूँदों के स्पर्श से ही रुकता था। लोग अपना गीला सीला सामान बड़ी प्रसन्नता के साथ समेटकर भीगते हुए ही घर लौटते थे । 
नानी बताती थी (मैंने भी देखा) कि "ऐसा कभी नही हुआ कि इस आयोजन के बाद पानी नही बरसा हो।" 
अब रोटी बनाने की प्रथा है या नही और सफल होती है या नही ,मुझे नही मालूम ,लेकिन देवताओं के खुद पानी पी लेने की बात अब नही है क्योंकि आज देवता प्यासे ही सोगए । फोन से मालूम हुआ कि गाँव में भी पानी की एक बूँद तो क्या आसमान में बादल का एक टुकड़ा तक नही है। 
अब लोगों की पुकार में वह बात नही । वैसा विश्वास नही । देवता भी शायद कुछ तय नही कर पाते कि प्रार्थना कहाँ होरही है ,वरदान कहाँ देना है ।कि अपराध कोई करता है और सजा किसी को सुना दीजाती है ।


फिर भी हे देव ,भला सगुन की कुछ बूँदें तो गिरा देते। कंकरीट के भवन और सड़कों को  तुम्हारी प्यास की चिन्ता है या नही लेकिन खेतों की माटी को चिन्ता भी है और प्रतीक्षा भी । प्रथा के विश्वास को बनाए रखने कुछ फुहारें तो बरसा देते । हे देव ! इस तरह भी कोई बिना पानी पिए सोता है ? 


( गाँव में वर्षा के और दूसरे उपायों का ,जो पहले हुआ करते थे ,वर्णन अगली कड़ी में )


रविवार, 6 जुलाई 2014

वह घर मुझे आज भी अपनी ओर खींचता है ।

यह सच है कि जहाँ बचपन व्यतीत होता है वहाँ से एक अटूट लगाव होता है लेकिन उस घर में मेरा बचपन नही बीता । छोटे भाई ने आने में ऐसी जल्दबाजी दिखाई कि मुझे माँ की गोद और अपना जन्मगृह छोड़कर नानी की शरण लेनी पड़ी । इस तरह बचपन ननिहाल बड़बारी ,बानमोर रामपुर आदि कई गाँवों में टुकड़ा-टुकड़ा गुजरा। ये सभी स्थान मेरी यादों में तो हैं लेकिन उस घर की याद व अनुभूतियाँ कभी अलग होती ही नही हैं।

मिट्टी के कच्चे घरोंदों वाले उस घर में हालांकि खास सुविधाएं नही हैं । कभी प्रतिष्ठा का पर्याय रहा वह घर ,अब जर्जर खपरैल , टुकडा-टुकडा गिरती दीवारों और विपन्नता का प्रतीक बन गया है लेकिन उसमें एक जादू है जो आज भी बरकरार है और जो मुझे खींचता है . यही नहीं खुश रहने की एक जो अभावों और समस्याओं के बीच भी सबको हँसने और उन्मुक्त रहने की दुर्लभ प्रवृत्ति भी  बनाए हुए है . मैंने देखा है कि जब सब लोग मिलते हैं तो सिर्फ उन्मुक्त होकर ठहाके लगाते हैं , गीत गाते हैं . मैं मानती हूँ कि अगर आपको खुलकर हँसना आता है तो चिन्ताएं आपसे दूर खड़ी ताकती रहेंगी . निश्चिन्त रहने का यह गुण दुर्लभ है और यह सम्पन्नता से उत्पन्न  नहीं होता .

मैं अपने पैतृक गाँव मामचौन (मुरैना) की बात कर रही हूँ, जहाँ मेरा जन्म हुआ। जन्म के एक-डेढ़ साल और छठवीं-सातवीं के दो वर्षों के अलावा मुझे वहाँ रहने का अवसर नही मिला। अभी पाँच वर्ष बाद गई ( रात तो लगभग बीस साल बाद बिताई) तो  देखा घर की हालत और भी बदतर होगई है। 
छोटे ताऊजी दो माह पहले 11 मई के दिन सबको अलविदा कह ही गए। 
आँगन और दीवारें आँसू बहाती हुई सी प्रतीत हुईं ,लेकिन मूँज की रस्सी से बुनी हुई खटिया और बडी जिया ( मौसी ,ताई भी )के हाथों की बनाई दरी पर लेटते हुए समय के इस अन्तराल की जरा सी भी अनुभूति नही हुई . लगा जैसे कि मैं सदा से ही वहाँ  रही हूँ हर मौसम और ऋतु को जीते हुए । 
विगत बीस सालों में हुए परिवर्तन बात करें तो काफी कुछ बदल गया है। अब गाँव तक पक्की सड़क है । दो तीन बसें चलती हैं। मुझे बचपन के दिनों की याद है जब आवागमन का कोई साधन नही था ,तब हम लोग नहर के किनारे ( चम्बल निचली मुख्य नहर ) पैदल ही आते जाते थे। (ननिहाल से मेरा पैतृक गाँव लगभग नौ-दस किमी है।) नहर पर बने पुलों को गिनते हुए कि यह पहाड़गढ़ वाला पुल है फिर धूरकूड़ा का पुल ,अब सगौरिया का पुल आगया आगे कोंड़ा और फिर मामचौन। चलते-चलते हम बच्चे भगवान से किसी वाहन के आने की प्रार्थना करते थे और कभी संयोग से कोई बैलगाड़ी या जीप निकलती और उसका दयालु चालक हमारे कुम्हलाए चेहरे देख बिठा लेता तो हमें ईश्वर के होने का पक्का विश्वास होजाता था । 
रसोईघर में चूल्हे की ओट के लिये बनाई दीवार   
अब बस से बीस-पच्चीस मिनट में ही गाँव में पहुँच जाते हैं। सचमुच आवागमन के साधनों का विकास क्षेत्र के विकास की पहली आवश्यकता होती है। 
हमारे घर के आसपास लगभग सभी मकान पक्के और सर्वसुविधायुक्त बन चुके हैं । खरंजा ( गली का फर्श ) तह पर तह इतनी बार बन चुका है कि गली हमारे घर की देहरी से कुछ ही नीची रह गई है । मुझे याद है कि गली से घर की बाहरी देहरी और चबूतरा इतना ऊँचा था कि उस पर बच्चे नही चढ़ पाते थे। गली से पौर के दरवाजे तक तक पाँच-छह सीढ़ियाँ थीं । विकास की यही गति रही तो एक दिन गली घर से ऊँची हो जाएगी। 
अनाज की कोठी का दूसरा हिस्सा जिसका अब रूप बिगड़ गया है ।
मौसी ( बड़ी जिया) के हाथ की पुरानी साड़ियों से बुनी गई दरी ।
लेकिन विकास की दौड़ में , स्वार्थ व धनलिप्सा बढ़ने के चलते कुछ बदलाव बहुत ही अखरने वाले भी हैं । जो सबसे बुरी बात लगी वह थी पेड़ों की कमी ।  सबसे अधिक अखरती है इमली के दो बड़े पेड़ों की कटाई की जो गाँव की पहचान दूर से ही कराते थे। मुझे याद है इमली के पेड़ों की घनी छाँव तले माध्यमिक विद्यालय चलता था जिसमें मैं भी दो वर्ष पढ़ी थी । सावन के महीने में इमली की मजबूत शाखाओं में कितने ही झूले डाले जाते थे । सारा वातावरण सुरीली मल्हारों से गूँज उठा था । मेरी दादी बहुत अच्छा गातीं थीं । हर ठिक-त्यौहार के गीत उन्हें आते थे । पर थीं बड़ी अभिमानिनी। बड़ी मनुहारों के बाद ही वे कोई गीत सुनातीं थीं वह भी अधूरा । उन्होंने किसी को अपने गीत नही दिये । मेरी माँ ने जरूर कुछ गीत सीख लिये थे जिनमें से सावन के गीतों को मैंने अपने तीन आलेखो में लिया है । अफसोस कि मैं उनसे कुछ और गीत संचित करूँ मेरी माँ की याददाश्त लगभग चली गई है।


इस घर में मेरा जन्म हुआ 
मेरे दादाजी श्री निरंजनलाल श्रीवास्तव बहुत ही सरल सज्जन ,एक रियासत में कर्मचारी थे। हमारे पूर्वज कभी जमींदार हुआ करते थे। माँ बताती हैं कि दादाजी के किसी रिश्तेदार की कुप्रवृत्तियों के कारण सारी उनकी सम्पत्ति कुर्क होगई और बाद में मेरी दादी ने खुद अपने हाथों से यह घर बनाया कच्ची दीवारों वाला लेकिन बेहद कलात्मक और सुरुचिपूर्ण। कच्ची दीवारें भी इतनी सुडौल व सपाट कि सीमेंट के प्लास्टर का भान करातीं थीं । लाल मिट्टी से लिपे हुए आँगन में जब दादी या मौसी खडिया के घोल से चौक पूरती थीं तो आँगन में जैसे चाँद-सितारे उतर आते थे । जो भी देखता देखता ही रह जाता था। बड़े ताऊजी ने दादी की विरासत पाई थी । उनके जीवित रहने तक घर में अनौखी सजावट रहती थी । रसोईघर की दीवार पर महालक्ष्मी जी का चित्र ,मिट्टी के खूबसूरत कँगूरों और बेलबूटों वाला तुलसीघर ,अनाज रखने की मिट्टी की कोठियाँ जो एक तरफ से अनाज भरने के काम आतीं तो दूसरी तरफ सुन्दर अलमारी का काम देतीं थी। हमारा घर त्यौहारों , सांस्कृतिक कार्यक्रमों और बाहर से आए विशिष्टजनों के लिये शानदार मेजबान होता था।  

बड़ी जिया जो मेरी मौसी भी हैं और  ताई भी।

अब घर का वह रूप नही रहा । न ही कोई वैसा परिश्रमी और कलाकार । न वह शान ,जो दादी और ताऊजी के समय रहा करती थी । दीवारें और आँगन ऊबड़-खाबड़ है। बड़े होकर उड़ गए पंछियों के बाद खाली रह गए घोंसले जैसा ही सूनापन उन घरोंदों में है। यह सूनापन वहाँ रहने वाले स्वजनों--भैया भाभी आदि--के भीतर भर रहे सूनेपन व निष्क्रियता का ही प्रतीक है, लेकिन मुझे भुरभुराकर गिरती दीवारों से , जर्जर खपरैलों से आज भी उतना ही लगाव है . एक असीम तृप्ति मिलती है उस आँगन में . 
मैंने छोटे ताऊजी का बँगला देखा , उनका चित्र लिया जो अभी-अभी उनके जाने के बाद बनवाया गया है। अपने जन्म वाला 'किवारी वाला घर' देखा। कुछ देर दादी वाली कोठरी में बैठी। 
घर के पिछवाड़े बेर के पेड़ के नीचे छितराई सी छाँव में राहत का कोरा सा अनुभव करती उदास गाय देखी । 
जर्जर दीवारों में लिखे विगत के शानदार गीत पढ़े। ताऊजी के चित्र व मूर्तियों को जो अब नही हैं ,यादों में उतारा .
और जलती दोपहर में आँगन के नीम की छाँव में पडी खटिया पर बैठे-बैठे एक असंभव की चाह जागी-- काश वे दिन लौट आते । 
और  रात में तारों से भरे आसमान का वैभव देखा ,मन और आँखों में भरा आसमान में इतने तारे शहर में तो कभी नहीं दिखते . वर्षों बाद गीदड़ों की आवाज सुनकर बड़ा अच्छा लगा  . शहर में पले बढ़े बच्चों के लिये यह जानवर और उसकी आवाज केवल कहानियों में मिलेगी .
वह घर आज भी मुझे अपनी ओर खींचता है . तभी तो सुबह वहाँ से चलते हुए मुझे कुछ अन्दर से कुछ निकलकर वही छूटता हुआ महसूस हुआ और मेरी आँखें अनायास ही भर आईं ।