मंगलवार, 23 जुलाई 2013

पलायन

कब तक !
आखिर कब तक 
मेरा विश्वास जमा रहता
तुम्हारे दरबार में ।
अंगद के पाँव की तरह ।

शत्रुता निभाने के लिये ही सही ।
तुम्हारे पास तो नही है
रावण जैसी ईमानदारी भी
कि अपना अन्त सुनिश्चित जानते हुए भी
रावण ने युद्ध का मैदान नही छोडा ।
नही किया समर्पण ,संकल्प नही तोडा,
दूत अवध्य था उसके लिये शत्रु का भी
तभी तो अंगद जमाए रहा अपना पाँव
एक वीर के दरबार में 
वीर की ही तरह ।

निभाना उचित है, आसान भी 
शत्रु से शत्रुता और मित्र से मित्रता 
लेकिन पता ही नही चलता कि 
तुम मित्र हो या शत्रु ।
जताते रहे हो 
कभी विश्वास 
तो कभी सन्देह ।
कभी शत्रुता तो कभी स्नेह
मिटाने की लालसा और 
सुरक्षा का भरोसा
भावों के दूत का वध भी
तुम करते ही रहे हो हमेशा
बिना किसी झिझक या ग्लानि के ।

फिर कैसे जमा रह सकता था
मेरा स्नेह और विश्वास
तुम्हारे दरबार में ।
हटा लिये अपने पाँव चुपचाप
बिना कोई दावा किये ।
भला कौन चाहता है यों
छल-बल और धोखे से मरना 


3 टिप्‍पणियां:

  1. दुविधा की स्थिति बड़ी त्रासदायक होती है !

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  2. सही कहा है...जानते हुए भी रावण ने अपना मार्ग नहीं छोड़ा...क्योंकि वहीं मिलने वाले थे राम..पर दुविधा से ग्रस्त मन को इतना भी भरोसा नहीं है...

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  3. विश्‍वास की अडिगता को लगा धोखे का धक्‍का निश्‍चय ही अन्‍दर तक पीड़ा देता है।

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