शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

मुझे धूप चाहिये

यह मेरी एक बाल कहानी का शीर्षक है और पुस्तक का भी । यह पुस्तक अभी-अभी एकलव्य ( भोपाल ) से प्रकाशित हुई है । इसमें आठ कहानियाँ संकलित हैं । अपनी खिडकी से संग्रह की कहानियों की तरह इस संग्रह की  भी लगभग सभी कहानियाँ पूर्व प्रकाशित हैं । कुछ चकमक में तो कुछ पाठकमंच (ने.बु.ट्र.) में  । अपनी इन सारी कहानियों की रचना का मेरी कल्पना व रचनाशीलता से कहीं अधिक माननीय सम्पादक गण ,जिनके आग्रह पर कहानियाँ लिखी गईं व पाठकगण जिन्होंने मुझे उत्साहित किया, को जाता है । मैं उन सबकी आभारी हूँ । इस कहानी को आप यहाँ http://manya-vihaan.blogspot.in/  पढें

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

इसलिये कि....


मैंने अगर की है कोई भूल ,
तो इसलिये नहीं कि
भूल जाओ मुझे तुम
अपनी किसी भूल की तरह ही ।
और बनालो रास्ता
दूर जाने का
मुझसे, अपने आपसे ।
बल्कि इसलिये कि
शिकायत करो ।
कारण पूछो मेरी भूल का
जरूरी लगे तो दे दो सजा भी ।

अगर मैंने कुछ ऐसा कहा जो
बेबुनियाद हो तुम्हारी नजर में
तो मत रहो यों मौन
चुपचाप एक दीवार बनाते हुए ।
तर्कों और बहसों से साबित करो
उसे झूठा...,
यों संवाद तो चलेगा
किसी तरह ही....।

टाँग दिये हैं मैंने कितने ही सवाल,
तुम्हारी दीवार की खूँटी पर
इसलिये नही कि
रद्दी कपडा समझ कर फेंक दो
कचरे के डिब्बे में
बल्कि इसलिये  कि
पूछो तो उन सवालों की जमीन
कहाँ से ,कैसे उगे
संवाद रहे जारी यूँ भी....।

तुम इसे अज्ञान कहते हो
कि मैंने रखीं हैं अपेक्षाएं आज तक
नकारकर तुम्हारी हर निरपेक्षता
इसलिये नही कि
आकर चुनो काँटे मेरी राह के
दे दो सहारा मेरे लडखडाने से पहले
बल्कि इसलिये कि
तुम हो मेरे अपने
अपने, जो अहसास कराते हैं 
मुझे मेरे अपने होने का 
मुझे नही मालूम कि
निरपेक्ष कैसे रहा जाता है
अपनों से .....।

रविवार, 14 अप्रैल 2013

एक नाम ---एक दरिया


कल गनगौर(गणगौर) पूजा थी ।
केवल अपने परिवेश की बात करूँ तो दूसरे त्यौहारों की तरह गणगौर--पूजा भी अब काफी संक्षिप्त ,औपचारिक और अकेली होगई है । खासतौर पर मेरे लिये जिसने बचपन में इस पर्व को काफी बड़े रूप में देखा हो ।
तब गनगौर के पर्व की तैयारियाँ आठ दस दिन पहले से शुरु हो जातीं थीं इधर माँ और मौसी ( जैसा कि मैंने  होली ....संस्मरण में लिखा है कि मौसी ही मेरी ताई भी हैं ) भर-भर डलिया 'गुना' बनातीं थीं  
क्योंकि पूरे गाँव में बाँटने होते थे । गुना गोल पहिया जैसी आकृति के मीठे नमकीन पकवान होते हैं .मीठे गुना गुड़ आटा और मैदा घी शक्कर के तथा नमकीन गुना  बेसन और मैदा अजवाइन के बनाए जाते थे ( हैं)। घी और तेल की महक पूरे मोहल्ले में फैलती थी । 
उधर ताऊजी मिट्टी से गणगौर  शिव पार्वती) की सुन्दर मूर्तियाँ बनाने जुट जाते थे । तृतीया की सुबह तक ताऊजी गौरा-ईसुर को पूरे साज-सिंगार के साथ तैयार कर देते थे ।  हमारा आँगन इतना बड़ा है कि उसमें  पचास-साठ महिलाएं आराम से बैठ जातीं थीं । पूजा सम्पन्न कराने का दायित्त्व दादी का होता था . छोटे कद की साँवली और दुबली-पतली मेरी दादी बहुत गुणी थीं . उनके हाथों में गजब की कलाकारी थी . मिट्टी के घर को उन्होंने इतना सुन्दर रूप दे रखा था कि लोग देखते रह जाते थे . उनके पास कहावतों गीतों और कहानियों का अपार भण्डार था . वे बहुत मधुर गातीं थीं . वे जितनी गुणी थीं उतनी ही तेज और अनुशासन प्रिय थीं . उनकी अवज्ञा करने का साहस किसी में नहीं था . इसलिये भी और अपने पद के हिसाब से भी हर व्रत-पूजा में कथा-वाचक की भूमिका वे ही निभाती थीं . सो गनगौर की  तीन-चार कहानियों ( कभी लिखूँगी) और मधुर गीतों के साथ पूरे विधि-विधान से पूजा सम्पन्न करवातीं थीं ।
मिटटी से इन्हें मैंने ही बनाया और सजाया है 
शाम को गौर का चीर लेने के साथ देर रात तक नाच-गाने की जमकर धूम  होती थी . नाच के कारण आँगन की लीपन तक उखड़ जाती थी . लेकिन इस पर्व का सबसे रोचक प्रसंग था शाम को गौरा का चीर प्राप्त करना ।
 कथानुसार गौरी से प्राप्त वह चीर सुहाग के दीर्घायु होने का प्रतीक होता है. उसे पाए बिना व्रत अधूरा ही होता है । लेकिन चीर के उस टुकड़े को पाना क्या आसान था ?
उस चीर को पाने के लिये सुहागिनों को अपने पति का नाम लेना होता था और यह कार्य मकर-संक्रान्ति के दिन सुबह-सुबह कड़कती सर्दी में नदी में डुबकी लगाने से कम दुष्कर नही होता था । अगर आपने कभी जनवरी की बर्फीली सुबह ऐसा किया हो तो आप जानते होंगे कि नदी में उतरने से पहले कितना हौसला जुटाना होता है । पति का नाम लेने से पहले सुहागनों का हौसला जुटाना देखने लायक तमाशा हुआ करता था .
वन-गमन प्रसंग में वनवासिनें सीताजी से पूछतीं हैं कि "करोडों कामदेवों को लज्जित कर देने वाले ये साँवरे सलौने तुम्हारे कौन हैं ?" तब सीताजी अपने व राम के सम्बन्ध तक को मुँह से नही बतातीं ( नाम लेना तो दूर ) सिर्फ संकेत कर देतीं हैं ---
"बहुरि बदनु बिधु आँचर ढाँकी, पिय तन चितहि भौंह करि बाँकी ।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हउ सिय सयननि ।"
उल्लेखनीय है कि तब (गाँवों में तथा शहर की पुरानी पीढ़ी में तो अब भी ) पति का नाम तो क्या पत्नी का भी नाम नही लिया जाता था । पुरुष की तरह महिला को भी या तो किसी रिश्ते के साथ ( मानू की माँ ,विमला की भाभी आदि) पुकारा जाता था या मायके के नाम के साथ ( जौरावाली ,रामपुरवाली ) । मुझे याद है , जब 1976 में मेरा विवाह हुआ था और पति शादी के बाद पहली बार मेरे मायके आए थे ,कार्यवश उन्होंने सबके सामने मुझे नाम लेकर पुकारा तो दादी ने होठों पर उँगलियाँ रख कर आँखें फैलाईं और अपने आपसे ही बोलीं--"अरे राम ! घोर कलजुग आगया । देखो तो कैसे तडाक् से सबके सामने लड़की का नाम ले रहा है !"
खैर...बात सुहागिनों द्वारा पति का नाम लेने और  नाम लेकर चीर पाने की दुर्गम राह पर ठहरी हुई है  तो सीन यह होता था कि एक महिला हाथ में गौरी का चीर लिये किसी निर्णायक की तरह सामने बैठी होती थी और चीर की उम्मीदवारिन सुहागिन को ललचाते शरमाते और पति का नाम लेने की  कोशिश करते देखती थी पर नाम था कि अन्दर से निकल कर जुबान पर आते--आते फिसल जाता था  .जैसे कुए में गिरी बाल्टी निकालते समय ऐन घाट तक आते बाल्टी फिर छूट कर गिर जाती है । यह ऐसी मुश्किल होती थी जैसी अँधेरे में माचिस ढूँढते में होती है । ऐसी झिझक होती थी जैसी नया-नया तैरना सीखे व्यक्ति को नदी पार करने से पहले होती है । ऐसी लज्जा जो पहली बार प्रिय के साक्षात्कार के समय होती है । नव वधुएं ही नही प्रौढाएं भी अपने प्रिय का नाम लेते हुए स्नेह और लाज से लाल होजातीं थीं । उस पर चारों ओर तमाशाबीनों का शोर । कई पल इसी कशमकश में गुजर जाते कि आखिर बीच रास्ते में आए उस गहरे नाले को कैसे लाँघा  जाए । जैसे वह दो-चार अक्षरों का नाम न हुआ दुर्गम पहाड़ की चोटी होगया । साठिया कुआ से खींचा एक बाल्टी पानी होगया ।  बहुत ऊँचे छींके पर रखी दही की हाँडी होगया । या मठा में ही ( दही में गलत तरीके से गरम या ठण्डा पानी मिलाने पर ) बिला गया माखन होगया । 
"अरी लुगाइयो ! क्या यहीं बैठी सबेरा करोगी ? साल में एक बार आज के दिन नाम लेने से तो पति की उमर बढ़ती है । जल्दी करो 'भैनाओ' ।"
दादी चिल्लातीं तब किसी तुकबन्दी से सहारे अटकते झिझकते हुए पति नाम लेते हुए वे चीर प्राप्त करतीं थीं , जी तोड़ मेहनत कर कमाए हुए रुपयों जैसा चीर । उस समय उन्हें ऐसा महसूस होता था जैसा किसी कवि को एक अच्छी कविता पूरी कर लेने पर होता है । लोकगीतों की तरह ही ये तुकबन्दियाँ किसने बनाईँ ,पता नही पर इन्हें नाव बना कर सुहागिनें एक गहरी और चौड़े पाट वाली नदी को पार कर सकतीं थीं( हैं ) । पढ़े-लिखे आधुनिक समाज में भले ही इनका कोई महत्त्व न हो पर अनपढ़ ग्रामीणाओं के लिये आज भी ये तुकबन्दियाँ किसी सरस कविता से कम नहीं हैं । उनमें से कुछ आप भी देखें ( कोष्ठक में पति का नाम )----
"चम्मच भरा घी ,मेरा (....) का एक ही जी ।"
"थाली में रोरी ,मैं (...) की गोरी ।"
"औलाती से टपके पानी ,दूध पिये (...) की रानी ।"
"कच्चा पान लाती नईं हूँ ,पक्का पान खाती नईँ हूँ "
(...) की सेज पर बिना बुलाए जाती नईं हूँ ।"
"तराजू की तीन तनी ,मेरी (...) की जोड़ी खूब बनी ।"
"कहूँ पक्के अनार कहूँ कच्चे अनार
ए सखी (...) गए हैं कन्हार ।"
"रोज करै सलाम ,(..) मेरौ गुलाम ।"
"थाली भरे बतासे ,(...) दिखावै तमासे"
"चन्दा की चाँदनी में तरसे जिया
बाती हूँ मैं (.....) मेरा दिया ।" ...
ऐसी तुकबन्दियाँ और भी हैं पर अभी मुझे इतनी ही याद हैं ।
कपड़ा, जेवर, शान-शौक और सुविधाओं से वंचित, जीवन की गाड़ी को मरुस्थल में भी हँस कर खींचने वाली ये ग्रामीणाएं जिस सहिष्णुता से जीवन की विसंगतियों से जूझती हैं ,सम्बन्धों का उत्सव भी उतने ही उल्लास से मनातीं है । स्नेह का ऐसा उदार और गहरा रूप अन्यत्र मिलना दुर्लभ है । हालाँकि उनके स्नेह व उदारता की कभी कोई कहानी नही बनती । इतिहास बनता है तो उसके प्रति कठोर उपेक्षा व असंवेदना का । लेकिन वे थामे रहतीं हैं सिर्फ और सिर्फ जीवन की खुशियों को और इसका  प्रतीक है गनगौर का यह उत्सव जब एक नाम लेने में स्नेह और लज्जा की नदी को पार करते-करते वे  उसमें डूब जाती है और निकलतीं हैं सारा विषाद ,निराशा और मालिन्य धोकर । निर्मल ,उज्ज्वल,शीतल ।

( चित्र की मूर्तियाँ---- मैंने ही कोशिश की है बनाने व सजाने की  । हालांकि वांछित मिट्टी व रंग उपलब्ध न हो सके  )

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

आधार


सुनो ,
जब मैं कहती हूँ या कि
मुझे लगता है कि ,
तुम खूबसूरत हो ।
तब यकीनन इसका आधार ,
नही होता महज 
तुम्हारा खूबसूरत होना।
बल्कि होता है  मेरा वह सौन्दर्य-बोध
जो तलाश लेता है खूबसूरती 
कहीं भी ।
तुम्हारे दिये  दंश और आघातों को
सहती हूँ  चुपचाप ।  
तो इसका आधार नहीं रहा कभी
तुम्हारा सबल 
या मेरा अबला होना ।
न ही यह अहसास कि 
औरत तो होती ही है 
सहने के लिये ।
इसका आधार तब भी 
वह सत्ता ही रही है 
अपराजेय सत्ता प्रेम की जो
महसूस नही होने देती 
कभी दर्द को दर्द की तरह
और,
जब मैं कहती हूँ 
कि तुम गलत हो
तब तुम होते हो सचमुच 
गलत ही .
क्योंकि तब भी उसका आधार है
वह पीड़ा ही 
जो उपजती है 
पाकर तुम्हारी असंवेदना निर्मम 
अपने स्तर से बहुत नीचे उतरते कदम .
पीड़ा भी तो एक रूप है प्रेम का ही   . ,
इसे तुम कब स्वीकार करोगे ??


शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

अधिकारी विधाताय भवः


पहले हमारा विचार था कि 'अतिथि देवो भवः' की तर्ज पर 'अधिकारी देवो भवः' लिख कर सबको ,खास तौर पर अपने अधिकारी को चकित ,हर्षित और विस्मित कर सकेंगे । लेकिन अब महसूस हुआ है कि वह हमारा निरा 'बौड़मपना' था । 
अधिकारी की तुलना देव से नही की जासकती । देवों का क्या ,जरा फूल पत्ते और प्रसाद चढ़ाया ,भोग लगाया , "भाव-कुभाव अनख आलसहू" स्तुति बोलते हुए अगरबत्ती जलाकर चारों ओर घुमाई और देवता प्रसन्न ।

 अरे हाँ....देवताओं के प्रसन्न होने की बात से याद आया कि शिवजी बड़े विचित्र देव हैं ,'आशुतोष' हैं । उनके 'आशुतोषपने' से ब्रह्माजी भी उकता गए कि यह क्या ,शिवजी तो जरा नाम लेने पर ही प्रसन्न होजाते हैं और लोगों का उद्धार कर देते हैं । ब्रहमा जी आखिर पार्वती को अपना दुखड़ा सुनाते हैं कि हे भवानी तुम्हारा पति तो बावला होगया है । अरे जिनके भाग्य में कभी कोई सुख था ही नही ,उन्हें स्वर्ग भेजते भेजते मैं तो तंग आगया हूँ ।"
( "बावरो रावरो नाह भवानी
..जिनके भाग्य लिखी लिपि मेरी सुख की नही निशानी ,
तिन रंकनि कौं 'नाक' सँवारत हों आयौ नकबानी ।" ) 
सो राम भजो । जो आसानी से प्रसन्न होजाए वह कैसा अधिकारी !! नाराज होना और जब तक मन चाहे, नाराज बने रह कर अपने मातहत को बेचैन बनाए रखना तो अधिकारी होने का पहला प्रमाण है और मौलिक अधिकार भी ।
अधिकार से याद आया कि अधिकारी के अधिकार तो अनन्त हैं । राई को पर्वत और पर्वत को राई कर सकने जितने । 
वे अपने 'मूड' के अनुसार (मनोदशानुसार) ही अपने कर्मचारी से व्यवहार करने के लिये पूर्ण स्वतन्त्र हैं . लेकिन  ,'वह मूड हमेशा कर्मचारी के विचार-व्यवहार से तय होता है' --अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आपकी बुद्धि पर तरस खाया जासकता है । अधिकारी का 'मूड' तो अपने आप ही जाने कब किस वायुमण्डल से शिरीष की तरह ( बकौल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) 'रस' खींच लेता है और कर्मचारी पर उँडेल देता है ।
वह रस तीखा भी हो सकता है और कडवा ,कसैला या खट्टा भी . ( मधुर रस तो उसी तरह दुर्लभ होता है जैसे टी.वी. चैनल्स पर किसी स्तरीय धारावाहिक या फिल्म का प्रसारण )। 
अच्छे मूड में अधिकारी आपको हाथी पर भी बिठा सकता  है, पर इसके लिये खुश होने की कतई जरूरत नही है क्योंकि कब आपकी जगह हाथी के पाँव तले होगी किसी को कुछ पता नही । 
मतलब कि कर्मचारी की डोर पूरी तरह अधिकारी के हाथ में होती है । वह जब चाहे आपको कठपुतली की तरह नचा सकता है . कुत्तों की तरह दुत्कार सकता है . अच्छा काम करने के बाद भी आपको अयोग्य ठहरा सकता हैं । किसी भी मुद्दे पर आपसे स्पष्टीकरण माँग सकता है । सी.आर. खराब कर सकता है । पाँच मिनट की देर के लिये पूरे दिन का वेतन काट सकता है । और सवाल करने पर आप पर कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही भी कर सकता है । और हाँ ,बहुत ही आवश्यक छुट्टी के लिये भी दो टूक मना कर सकता है । 
जी हाँ छुट्टियाँ आपको शासन द्वारा दी गईं हैं और छुट्टी लेना आपका अधिकार है ,ऐसा सोचने की भूल, भूल कर भी न कर बैठें क्योंकि छुट्टी आपको अधिकारी की मर्जी के बिना हरगिज नही मिल सकतीं । फिर आपकी बेटी हास्पिटल में भर्ती हो या बडी प्रतीक्षा के बाद आपको किसी पर्वतीय स्थान पर भ्रमण करने का अवसर मिला हो ,अगर अधिकारी की दृष्टि बंकिम है तो मन मार कर रह जाने के अलावा आपके पास कोई चारा नही । 
ज्यादा 'रिक्वेस्ट' करने पर आपको यह भी सुनना पड सकता है कि ---
"क्या आपको मालूम नही कि सरकारी नौकरी चौबीसों घंटे की होती है ?".
कि "अरे जितना कमा रहे हो उतना तो निभाओ नौकरी से वफादारी करो ।"
कि "ना छुट्टी अभी तो नही मिलेगी ।"  
कि "अच्छा ,अभी दिमाग मत खाओ बाद में आना ।" 
और सावधान, अगर अधिकारी कुपित होगया तो आपकी मौजूदगी में ही आपको गैरहाजिर मान सकता है । और बाकायदा वेतन काट सकता है । 
कुछ समझे कि इससे निष्कर्ष क्या निकला ? 
यही न कि 'नौन तेल लकडी'  की तिकडम में अधिकारी की भूमिका किसी विधाता से कम नही है । इसलिये बन्धु ! अगर चैन से नौकरी करनी है तो अधिकारी को जैसे भी बन सके अनुकूल बना कर रखो । अपनी हड्डियों को नरम और लचीली बनाओ। खास तौरपर रीढ़ की हड्डी को ।
 हालांकि जैसा पहले ही कहा है कि अधिकारी को अनुकूल रखना देवाराधन जैसा आसान बिल्कुल नही है । आपकी पूजा अर्चना  ठुकराई भी जा सकती है फिर भी अपने बॅास के सामने 'छोटा बने जो ,वो हरि पाए ' का ही शाश्वत भाव  रखो । देर-अबेर पर्वत पिघलेगा ही इस सकारात्मक दृष्टि को धुँधली मत पडने दो और अपने बॅास को सदा "प्रनतपाल भगवन्ता" (तुलसीदास) मानो । याद रहे कि हर छोटा-बड़ा अधिकारी मौलिक रूप से 'प्रनत-पाल' ही होता है। (यह बात अलग है कि  कुछ तो अपने 'प्रनत' को भी धराशायी करने से नही चूकते .पर यह आपके याद रखने की बात हरगिज नही है )
और हाँ अधिकारी के लिये 'तन मन धन सब तेरा ,.तेरा तुझके अर्पण ' जैसा समर्पण भाव भी अनिवार्य है ।
याद रहे , अगर सेवा सफल होगई तो फिर आप निर्विघ्न नौकरी कर सकते हैं । अधिकारी के अलावा कोई 'ऐरा गैरा नत्थू खैरा' आपकी ओर वक्रदृष्टि नही फेंक सकता । गारंटी है एक सौ एक परसेंट ।

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

होली और वह अद्भुत नाट्य-मंचन


हमारे गाँव की होली पूरे इलाके में सबसे अलग होती थी । मेरे ननिहाल और दूसरे गाँवों में जहाँ लोग होली में रंग-गुलाल कम और धूल ,कीचड, गोबर, मल-मूत्र ,का ज्यादा इस्तेमाल करते थे वहीं मेरे पैतृक गाँव मामचौन (मुरैना) में रंग और गुलाल की वर्षा के अलावा कुछ होता तो वह था गाना-बजाना और अभिनय...नकल । आज मैं सोच-सोच कर अभिभूत हूँ कि उस समय गाँव में कैसे-कैसे कलाकार थे ।
 'कंजूस सेठ', 'चालाक मुनीम' ,'पत्नी-पीडित व्यक्ति', 'शरीर' कर्जदार , 'दुकानदार को चूना लगाने वाला धूर्त ग्राहक' , 'मास्टर जी के पास पढने आया मूर्ख व्यक्ति 'जैसे हास्यप्रद चरित्रों को कितनी जीवंतता से अभिनीत करते थे वे लोग ।
 पूर्णिमा की रात को गाँव के सभी लोग (हर जाति वर्ग के) एक ही जगह ढोलक,मंजीरे और हारमोनियम के साथ फाग (होली के गीत) गाते हुए होली जलाते थे और फिर परस्पर गुलाल लगाते और नाचते गाते हुए घर लौटते थे । उस रात भला नींद किसको आती ! चाँदनी के उजाले में दादी हमें 'हिरनाकुस' होरिका' और 'पैहलाद' की कहानी सुनाती थीं । उधर माँ ,मौसी ( मौसी ही मेरी ताईजी भी हैं ) और गाँव की औरतें हमारे खूब बडे और लिपे हुए कच्चे आँगन में ढोलक पर --'श्याम बाँधें मुकट खेलें होरी.'...जैसे गीत बडे सधे हुए सुर में गातीं और नाचतीं थी । 
मेरी दादी तो बहुत ही सुरीला गातीं थीं । गाने में ही नही वे हर कला में निपुण थीं । अपनी कला और कठोर अनुशासन के कारण किस तरह वे घर में ही नही पूरे गाँव में सम्माननीया थीं वह सब कभी अलग से ही बताना होगा । 
रेशम की चादर की तरह सरकती पूर्णिमा की वह  रात कितनी लुभावनी होती थी ! राग रंग और उल्लास से भरी .  उधर चन्द्रमा पश्चिम की सीढियों पर उतरने लगता और इधर पलकों पर नींद का बसेरा होता था , पर सोने वाले सिर्फ हम बच्चे हुआ करते थे । माँ और मौसी को गुझिया ,पपड़ी बनाने  का काम पूरा करना होता था क्योंकि सुबह तो (प्रतिपदा को ) दरवाजे पर गाँव के लोग फाग गाते इकट्ठे हो जाते थे . हमारी नींद ढोलक मंजीरों की ताल से ही खुलती थी ।
पडवा वाले दिन की होली मर्दानी होली होती थी . पता नहीं यह व्यवस्था किसने शुरू की और उसका कारण क्या था  पर यह सच है कि प्रतिपदा का दिन केवल पुरुषों के नाम होता था.महिलाएं उनके लिए जलपान और ठण्डाई बनाने में लगी रहतीं थीं  .उनकी  होली दूसरे दिन दौज को होती थी . रंग भरा वह पूरा दिन केवल महिलाओं के नाम  होता था . 
पड़वा की सुबह से ही लोग घरों से निकल पड़ते थे . हर दरवाजे पर गाते-बजाते नाचते और रंग-गुलाल बरसाते और धूम मचाते हुए गाँव भर में घूमते थे । ताऊजी और पिताजी दोनों ही गाने-बजाने में खूब लोकप्रिय थे । पिताजी जब---"आवागमन मिटजावै, कोई ऐसी होरी खिलावै "--गाते थे तो लोग बड़ी तल्लीनता से सुनते थे । 
इस अवसर पर अगर गाँव में अनजाने या जानकर कोई दामाद आया हुआ होता तो उसे भी विदूषक बनाकर गाँव में घुमाया जाता था और वह भी काफी मनोरंजक होता था . 
दौज पूजा के बाद महिलाएं हमारे आँगन में इकट्ठी होजातीं थीं . हमारे घर चित्रगुप्त जी का पूजन होता था .कलम-दवात की पूजा होती थी . दादी कहतीं थीं कि हम कायस्थों के पास न जमीन है न जायदाद हमारी दौलत तो कलम ही है . दादी के पास कांच की एक दवात थी  जिसमें  सूरज की किरणें सतरंगी छटा बिखेरतीं थीं .  
सबसे यादगार मनोरंजन होता था दौज की रात में नाट्य-मंचन । मुझे याद है उन दिनों कुछ नाटक विशेष तौर पर मंचित किये जाते थे जैसे रूप-वसन्त ,राजा मोरध्वज, सुल्ताना डाकू, राजा हरिश्चन्द्र ,दही वाली ,वीर विक्रमादित्य आदि ।
 मुझे राजा हरिश्चन्द्र वाला नाटक सबसे अधिक मार्मिक और लुभावना लगता था । मैं उस नाटक को, जिसके संवाद छन्दबद्ध और लयात्मक थे ,पढते पढते अकेले में खूब रोया करती थी । (पता नही उसका रचयिता कौन था । वह पुस्तक अब अप्राप्य है और यह मुझे बहुत बडा नुक्सान प्रतीत होता है ) 
 वैसे तो नाट्य-कलाकार हर साल बाहर से ही बुलाए जाते थे लेकिन उस बार किसी कारण से ऐसा नही हो सका । कई जगह बुलावे भेजे गए पर राजा रानी ,जो नाटक के प्रमुख पात्र हैं ,की भूमिका के लिए कोई कलाकार नहीं मिला .
सबने कहा कि चाहे गाँव के कलाकार ही नाटक खेलें पर नाटक होना जरूर चाहिये । काफी सोच विचार कर राजा हरिश्च्न्द्र की भूमिका ताऊजी ( श्री भूपसिंह श्रीवास्तव) रानी की भूमिका पिताजी (श्री बाबूलाल श्रीवास्तव) को देना तय हुआ । पिताजी की आवाज सौम्य और महीन थी और ताऊजी की खुरदरी और मोटी ,बच्चन जी जैसी थी । कद भी वैसा ही ऊँचा पूरा (आपमें से कुछ सहृदय साथियों ने मेरे ब्लाग 'कथा-कहानी में 'चुनौती कहानी पढी होगी । वह मेरे ताऊजी पर ही केन्द्रित है) पिताजी छोटे कद के थे । यह प्राकृतिक अन्तर उनकी भूमिकाओं के लिये एकदम अनुकूल था । संवादों को गाने में तो उनका कोई मुकाबला ही नही था । अब तीसरी मुख्य भूमिका थी राजा के पुत्र रोहिताश्व की जो मँझले भैया राजकिशोर को दी गई । वे तब लगभग छह-सात वर्ष के रहे होंगे । मुझसे कोई डेढ-दो साल बडे थे । इस महान सत्यवादी राजा की कहानी को तो आप सब जानते ही होंगे । नाटक द्वारा मैंने जो कुछ जाना वह संक्षेप में कुछ यों है ---'सूर्यवंशी राम के पूर्वज राजा हरिश्चन्द्र की दानवीरता और सत्यवादिता स्वर्ग तक प्रसिद्ध थी . प्रसिद्धि कहीं द्वेष ,कहीं भय और कहीं परख का भाव उत्पन्न करती है . राजा की  परीक्षा लेने के लिये मुनि विश्वामित्र ने राजा से साठ भार सोने की माँग की (साठ भार कितना होता है मुझे नही पता किताब में यही लिखा था ) वह भी उस समय जब राजा बहुत सारा धन दान कर देने से खजाना खाली कर चुके थे । पर 'रघुकुल रीति सदा चलि आई' के अनुसार मुनि को खाली हाथ भी नही लौटाया जा सकता था । राजा ने स्वर्ण-दान के लिये उनसे विनम्रता पूर्वक कुछ समय माँगा इस पर मुनि ने पहले तो राजा का उपहास किया उनकी दानवीरता व सत्यवादिता की खिल्ली उडाई और शाप तक दे डालने की बात कही तब राजा ने स्वयं, रानी तारामती और पुत्र रोहिताश्व को बेच कर मुनि को धन देने का वचन दिया और ," अब परनाम करहुँ राजधानी ..", गाते हुए सजल आँखों से अयोध्या से विदा लेते हैं । 
मुनि ने काशी जाकर तीनों की बोली लगाई । रानी और राजकुमार को एक पण्डित ने खरीद लिया । रानी को पण्डित का पानी भरने तथा राजकुमार को पूजा के लिए फूल चुनने का काम सौंप दिया । 
राजा को एक डोम ने खरीदा जो मणिकर्णिका घाट पर शवदाह और शव-प्रवाहित करवाने के बदले 'कर' वसूलता था । उसने राजा को 'हरिया' नाम देते हुए श्मशान का यह काम सौंप दिया । 
मुनि को वांछित सोना मिल गया लेकिन बात यहीं खत्म नही होती । विश्वामित्र मुनि बडी कठोरता से राजा की सत्यवादिता और धर्मनिष्ठा की परीक्षाएं लेते रहे । वे फुलवारी में साँप बन कर राजकुमार को डसते हैं । दुःख से बेहाल रानी पुत्र के शव को गंगा में बहाने लेजाती है लेकिन 'हरिया' (डोम के नौकर बने राजा हरिश्चन्द्र) 'कर' लिये बिना रानी को पुत्र का शव नही बहाने देता । यह जानते हुए भी कि वह उसकी अपनी रानी है और मृतक अपना प्यारा पुत्र । तब अपना 'चीर' फाड कर रानी बिलखते हुए 'कर' अदा करती है और पुत्र के शव को बहा देती है । मुनि छल से राजकुमार की मृत देह को दुख की मारी बेहाल हुई रानी के पास रख कर उसे डायन घोषित करवाते हैं । काशी नरेश के आदेश पर उस डायन को मारने का काम भी हरिया को ही मिलता है । धर्मसंकट से घिरा हरिया डायन को मारने के लिये जैसे ही खड्ग उठाता है भगवान प्रकट होजाते हैं और राजा का हाथ पकडते हुए कहते हैं कि तुम अपनी परीक्षा में सफल हुए राजा । तुम्हारे जैसा सत्यवादी ,धर्मनिष्ठ , वचन निभाने वाला न कोई हुआ है न होगा । इस तरह राजा सत्य धर्म और वचन की रक्षा में सफल होते हैं उन्हें अपना राज्य-वैभव पुनः मिलजाता है ।" 
उल्लेखनीय है कि नाट्यशास्त्र के रचयिता आचार्य भरतमुनि ने साहित्य में कथा का दुखान्त वर्जित माना है । मंचन में हिंसा व रक्तपात भी प्रतीकात्मक ही दिखाए जाने का निर्देश रहा है । कथा का दुखान्त (ट्रैजिडी) पाश्चात्यशास्त्र की देन है । यही बात नायक के सकारात्मक व नकारात्मक चरित्र पर भी लागू होती है । भारतीय साहित्य में नायक की भूमिका सदा सकारात्मक और गुण-सम्पन्न रही है । दुष्ट व दुर्जन सदा खलनायक ही माने गए हैं नायक नहीं । खैर..
.राजा हरिश्चन्द्र के इस नाटक में कई बहुत ही करुणा-विगलित प्रसंग हैं जो इन पिता-चाचा-भतीजे ने इतनी सच्चाई से निभाए कि दर्शक जड़ हुए से बैठे देखते रहे और कई दृश्यों पर अपने आँसू पौंछते रहे . हाँ जब काशी में राजा रानी और रोहित ,तीनों का विछोह हुआ तब कुछ पलों के लिये तो नाटक को विराम देना ही पड़ गया था ।
हुआ यों कि किशोर भैया को सिखाया गया था कि जब वह राजा से बिछुड़ने का सीन आए तब उन्हें राजा से लिपट कर विलाप करना है । भैया जब राजा बने ताऊजी से लिपटकर रोने का अभिनय करने लगे तो सचमुच ही रोने लगे , और इस तरह रोने लगे जैसे सचमुच उनका अपने पिता से विछोह हो रहा है । तब राजा बने ताऊजी भी फूट-फूट कर रोने लगे और रानी रूप पिताजी भी । उनका गला अवरुद्ध होगया और वे संवाद बोलने की स्थिति में ही न रहे । संवाद बोले भी तो अटक अटककर .दृश्य इतना वास्तविक और मार्मिक होगया कि दर्शकों तक की सिसकियाँ सुनी जाने लगीं थी । सबकी  आँखें मानो झरना बन गईं । समय भी जैसे स्तब्ध सा रुका रह गया । कुछ क्षणों बाद जब भावों का रिसना (नाक का भी) बन्द हुआ , काँपता हुआ गला स्थिर हुआ तब कहीं नाटक आगे बढ सका था ।
ताऊजी और पिताजी दोनों ही अब नही हैं । पर उनकी उस यादगार भूमिका को याद कर हम लोग आज भी अपने आँसुओं के प्रवाह  को रोक  नही पाते ।