शनिवार, 30 मार्च 2013

आँकडों का बाजार


अफसर ने कहा
अपने मातहत को दुत्कार कर कहा --
"काम है यह वाहियात
वापस ले जाओ सारे कागजात
रिपोर्ट में आँकडे तो हैं ही नही । 
हमें तो आँकडे चाहिये 
किसी भाव मिलें 
किसी राह मिलें 
बस आँकडे चाहिये ।"
"लेकिन सर आँकडों से क्या
काम तो दिख रहा है सभी को 
हाथ कंगन को आरसी क्या !"
अफसर बोला ---"तुम तो हो निरे जाहिल
तुमको पढाएं अब फारसी क्या !
करते हो बेकार के सवाल 
नौकरी में करना है कोई बवाल ? 
आंकडे न होंगे तो पता कैसे चलेगा ?
सुर्खियों का कमल कैसे खिलेगा ।
देश कहाँ तक पहुँचा है और ..
पहुँचा सकेंगे उसे कहाँ तक ?
अशिक्षा और गरीबी कितनी मिटी ?
नेताजी के जुलूस में भीड कितनी जुटी?
आँकडे जुटाना 
और अखबार में छपाना ही 
सबसे बडा और जरूरी काम है
बाकी सब हराम है ।
दूसरा काम चले न चले
बदहाली टले न टले  
हर काम पर ओ.के. लिखो 
तैयार फसल कागजों में ही 
बिना बीज बो के लिखो 
गन्दगी भीतर हो तो हो ,
बाहर सब धो के लिखो 
बात पाने की हो या खोने की 
लक्ष्य पर अडिग हो के लिखो 
जरूरी हो तो सूखा 
नही तो फसलों का गलना लिखो ।
घर बैठे हो पर बीस कोस चलना लिखो ।
तुम समझो कि आँकडों का ही बाजार है 
आँकडों से ही व्यापार है 
आँकडों में बनना भोजन है 
आँकडों से ही बनना अचार है ।"



6 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी छोटी सी जादूगरी न जनता समझती है, न मातहत..

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  2. आंकड़ों के मोह से कोई भी नहीं बच पाया ...
    व्यंगात्मक अंदाज़ में लिखी बेहतरीन रचना ...

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  3. दीदी!
    कमाल की कविता है.. पहली पंक्ति से आख़िरी पंक्ति तक मेरी व्यथा-कथा व्यक्त कर रही है.. बस ऐसा लग रहा है कि मेरी पिछले दिनों की गैरहाजिरी की असलियत बयान कर दी आपने..
    आंकड़ों का प्रहार इतना कड़ा है और अफसर मातहत का दुष्चक्र इतना विस्तीर्ण कि कौन साहब और कौन अर्दली पता लगाना मश्किल है.. सब पिस रहे हैं और पीस रहे हैं, इन कड़े आंकड़ों की चक्की में!! बहुत अच्छे!!

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    1. बस रचना सफल हुई । आपका तहे दिल से स्वागत है भाई । इतने दिनों की गैरहाजिरी निश्चित ही एक दुष्चक्र का अहसास करा रही थी बराबर ।

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  4. व्यंग भरी बेहतरीन रचना,आकडों से अछूता कोई नही.

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