शनिवार, 28 जुलाई 2012

सावन के गीतों में जीवन के रंग----3


दूसरे लोकगीतों की तरह सावन के गीतों में भी लोक जीवन के गहरे और पक्के
रंग मिलते हैं जिनमें हास-परिहास है । रिश्तों में उलाहने हैं ,टीस है ,तो अपराजेय अपनापन भी है ,वह सहिष्णुता भी है जो किसी भी मुसीबत में अडिग रहने का प्रशिक्षण देती है । इनमें उल्लास है तो वेदना भी है लेकिन वह सब हृदय को एक सशक्त भाव-भूमि देता है जिस पर निर्भय चलते चले जाओ ,कभी पराजय व निराशा राह नही रोकेंगीँ ।
यहाँ ऐसे ही कुछ और गीत हैं ।
(1) सावन का महीना और पीहर की गलियाँ
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सावन की फुहारें बचपन के गलियारों में ले जाकर भिगो देतीं हैं । मायके की गलियाँ उसे पुकारतीं हैं । बिछडी सहेलियों से मिलने की आकांक्षा मन की नदी में जैसे उमंगों की बाढ उमडाती है । बाबुल की गलियों में, मैया के आँगन में, बाग-बगीचों ,कूल-किनारों ,झूले-हिंडोलों और गीतों मल्हारों में साँस लेने की चाह में वह दिन रात माँ-जाये की प्रतीक्षा करती है । कब वह लीले घोडे पर सवार होकर अपनी बहन को लिवाने आएगा । बहन उसकी राह में पलक पाँवडे बिछाती है । उसके मलमल के कुरते के लिये महीन सूत कातती है । और गाती है---बहना नै लेखौ पठायौ ,वीरन .....(भाई का नाम.)...मोहे लै जाउ ..धुरही पछैंया है हठ परी..।
बहन-बेटी के बिना कैसा सावन ..। भाई बहिन को लिवाने उसकी ससुराल पहुँच ही जाता है । बहन फूली नही समाती । उसका रोम-रोम गाने लगता है--
आयौ री मेरौ माँ--जायौ वीर ,बाबुल ने लेन पठाइयौ ..।
तुम कहौ ए सासु पीहर जाउँ ,बारौ बीरन लैने आइयौ ...
तुम कहौ ए ननदी पीहर जाउँ ,छोटौ बीरन लैने आइयौ ।
सास तो फिर भी मान जाती है आखिर वह भी एक माँ है लेकिन निर्मम ननदिया को यह स्वीकार नही कि भाभी भरे त्यौहार में ,काम के समय मायके जा बैठे । वह कहती है--
जितनौ ए भावज कोठीनि नाज (अनाज) उतनौ पीसि धर जाइयो
जितनौ ए भावज कुँअलनि नीर ,उतनौ भरि धरि जाइयो ।
ननद पूरी तानाशाह है । उसकी बात टालने का साहस भाभी में कहाँ । पर मायके जाने से रोकना शायद सबसे बडा दुख होता है स्त्री का वह भी सावन में । भाभी बेचारी कह तो कुछ नही पाती ,इसलिये ननद के लिये कुकल्पनाएं करके ही मन को समझा लेती है--
सब घर ए बहना आय़ौ है ताव (बुखार)
ननद को आयौ बेलिया इकतरौ (मलेरिया)
सब घर ए बहना उतरौ है ताव ननदी कों लैगयौ बेलिया इकतरौ ।
पीहर जाने पर प्रतिबन्ध लगाने वाले के लिये ऐसी कल्पना एक सुकून देती है कि ननद को मलेरिया होगया है और ऐसा हुआ है कि दुष्टा ननद को लेकर ही जाएगा ।चलो पीछा छूटा । पर ऐसी कल्पनाएं केवल मन के क्रन्दन को शान्त करने के लिये होती है जैसे अपच होने पर वमन करना और कुछ नही । थोडी बहुत नानुकर के बाद बहू को पीहर भेज ही दिया गया । बहू की सारी शिकायतें खत्म । आमतौर पर हर लडकी ननद भी होती है और भाभी भी । इसलिये यह कहानी लगभग सभी की है जीवन की सच्चाई से जुडी । कोई बनावट नही कोई छल नही ।
(2)
मायके जाने के लिये मान-मनुहार का एक और जीवन्त चित्र--
सावन का हरा-भरा महीना है । पत्नी पीहर जाने को जितनी उतावली है पति उतना ही रोकने को ।
पत्नी---आई है सावन की बहार हम तौ पिय जाइँगे अपने माइकैं हो राज...।
पति को अचरज हुआ । पूछने लगा---
को तुनकों ए गोरी आए लैनहार ,को तुमको लायौ डोली पालकी हो राज...
पत्नी---वीsssरन ए हमें आए लैनहार, धीमर तौ लायौ डोली-पालकी हो राज ..।
पति --घर में ही ए गोरी हिंडोला गढाऊँ, झूला रेशम कौ रूपे पाटुली हो राज..।
फेरौ तौ हे गोरी डोलीया कहार भइया कों फेरौ राजी राजिया हो राज..।
( हे गोरी मायके जाकर क्या करोगी मैं घर में ही हिंडोला गढवा दूँगा ,रेशम की रस्सी और चाँदी की पटली बनवा दूँगा । तुम कहारों को वापस भेजदो और भैया राजा को मैं लौटा देता हूँ । लेकिन पत्नी को सावन में मायके तो जाना ही है न सो वह पति को कहती है--हे राजाजी झूला झूलने को तुम्हारी प्यारी बहन तो है मैं तो मायके जाऊँगी ही ) पति और भी प्रलोभन देता है---
माथे कौ ए गोरी बेंदा गढाऊँ ,बेसरि मुल्याऊँ तेरी मौज की हो राज ..।( मैं तेरे लिये माथे का टीका और नथ गढवा देता हूँ पर तू मायके न जा ) लेकिन मायके के लिये पहले से ही बकस तैयार कर बैठी पत्नी कोई प्रलोभन मानने राजी नही है---
बेंदा बेसरि राजा कछु न सुहाय हम तौ पिय जाइँगे अपने मायके हो राज..।
इसके आगे तो पति के पास कोई तर्क शेष नही रहता । आखिर वह भी तो पत्नी की खुशी चाहता है । हार कर कहता है ---पीहर जाउ गोरी नाही बिसराउ ,दस दिन रहि कै घर कों आइयो हो राज...।
(3)
एक अन्य गीत में एक सुन्दर षोडशी कृषक बाला भरी डलिया उठवाने खडी है । कोई दिखे तो मदद माँगे । उस कोमलांगी में इतनी शक्ति कहाँ कि इतनी भारी डलिया को अकेली ही उठा कर सिर पर रखले । तभी एक बटोही वहाँ आ निकलता है ।  कृषक बाला बटोही से डलिया उठवाने का निहोरा करती है ।
"डलना है भारी बटोहिया , तुम नैकु सहारौ देउ कै मेंहदी रंगै चढी...।"
वह बाँका बटोही कहता है कि डलिया तो उचवा दूँगा पर मेहनताना क्या देगी--" जो तोहि डलना उचाइयों ,मोहि काहा मजूरी देहि कै मेंहदी रंगै चढी...।" बाला कहती है --"हाथ कौ दैऊगी तोहि मूँदरा ,औरु गले कौ हार कै मेंहदी रंग चढी महाराज..।"
बटोही को हार--मूँदरा नही चाहिये उसकी मंशा तो कुछ और ही है कहता है--
"जो तोहि डलना उचाइयौं गोरी सी नार ,तू मेरी घरधनि होइ कै मेंहदी रंगै चढी महाराज..।"
वाह रे बटोही मन में इतना पाप भरा है कि जरा डलिया उठवाने के बहाने ही बाहर आगया । स्त्री को क्या तूने अपने खेत में लगी भाजी समझ लिया है कि जब मन करे तोडले । वह उसे दुतकार देती है---
"तो सौ तौ भरै मेरौ पानी बटोही ,मौ सी तौ मलि मलि नहाए कै मेंहदी रंगै चढी...।"
बटोही शर्मिन्दा होकर रूपसी की डलिया उचवा देता है ।
किसी क्षेत्र को आन्तरिक रूप से पूरी तरह समझने के लिये वहाँ के लोकगीतों व परम्पराओं को देखना ही होगा ।  
हालाँकि ये लोकगीत एक सीमित क्षेत्र के हैं लेकिन दूसरे लोकगीतों की तरह ही ये भी जनजीवन से गहरे जुडे हैं । सावन में जब बादलों की तरह मेंहदी का रंग भी गहरा होने लगता है , बाडों पर करेला और कुम्हडा की बेले फूल उठतीं है ,बागों में झूलों पर ऊँची पीगें होड लेतीं हैं तब चाँदनी के रुपहले जादुई संसार में कोकिल-कंठी तानें गूँज उठतीं हैं तब मानो जीवन ही मुखर होजाता है । पहर पल बन जाते हैं । गीत जीवन को गति देते हैं उल्लास भरी ऊर्जा देते हैं । आज जरूरत हैं लोकगीतों में बिखरे वैभव को खोजने की जहाँ जिन्दगी अपनी पूरी सच्चाई के साथ मौजूद है ।

समाप्त ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर....
    संग्रहणीय पोस्ट.

    आभार गिरिजा जी
    सादर
    अनु

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  2. लोकरीतियों की सुन्दर सावनी छटा बिखेरती यह पोस्ट।

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  3. बहुत बढ़िया संग्रहणीय पोस्ट.के लिए बधाई ,,,,,

    RECENT POST,,,इन्तजार,,,

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    1. सार्थक और सामयिक पोस्ट , आभार.
      कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी पधारें, प्रतीक्षा है आपकी .

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  4. दीदी, पहले सब पढ़ लूं फिर कुछ कहूँगा.. इसे बस हाजिरी समझिए और सूचना भी कि आपका भाई रक्षा बंधन के दिन ब्लॉग पर लौट आया है!! प्रणाम!!

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  5. बहुत दिन बाद फुर्सत निकली है... पता है अभी कितने बज रहे हैं रात के ३.४०... खैर
    अद्भुत... मजा आ गया

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    1. हार्दिक शुभकामनाएं । सदा सक्रिय व सानन्द रहो भाई ।

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