सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

वह बात

कहदो वही बात
मुझसे तुम आज
कहदी जो सुबह-सुबह
सूरज ने नेह भर
मैदानों, गलियों से
लहरों से, कलियों से
बिखराये कितने रंग
खुशबू के संग ।

कहदी हवाओं ने
जो बात मेघों से,
हुए पानी-पानी
फुहारें सुहानी ।

कहदी दिशाओं ने
पर्वत के कानों में
पिघली शिलाएं
फूटी जल धाराएं ।

फूँकी जो मौसम ने
टहनी के कानों में
पल्लव मुस्काये
और अमुआ बौराए ।

पीडा ने ह्रदय से
जो बात कह कर
सँवारा है गीतों को
मान दिया मीतों को ।

गहरा गयी है
क्षितिज तक खामोशी
घिरे ना अँधेरा
कि यूँ ना रहो चुप
कहो ना वही बात
मुझसे तुम आज

12 टिप्‍पणियां:

  1. यह कविता सिर्फ सूरज,लहर, कली, खुशबू, रंग,हवा, मेघ, पानी, फुआर, पर्वत, शिला, आकाश आदि का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।

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  2. इन अनकही बातों ने मधुमासी छटा बिखेर दी, वाह !!!!!

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  3. बिम्बों ने बात को रोचक व सुन्दर बना दिया है..

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  4. गिरिजा जी!
    आज तो इतने प्यारे ढंग से और इतने सारे बिम्बों को समेटकर जो उलाहना दिया है, उसमें इतना प्यार भरा है कि क्या कहने!! इस कविता की लयात्मकता मन को मोह लेती है! बहुत सुन्दर कविता!!

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  5. बहुत खूबसूरत रचना... उस शब्द की तरह जिसे सुनने के लिए सब इतने लालायित हैं.... प्रकृति के प्रेम का अनूठा चित्रण गजब का है...

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  6. कि यूँ ना रहो चुप
    कहो ना वही बात
    मुझसे तुम आज ...

    मन सच में पागल होता है ... उन्ही बातों को दोहराना चाहता है ... पागल रहता है प्रेम में दीवानों की तरह ... लाजवाब रचना ...

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