सोमवार, 13 सितंबर 2010

मातृभाषा


( हिन्दी ) माँ

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मातृभाषा माँ है ।
माँ ही समझ सकती है
औरों को भी समझा सकती है
ह्रदय की हर बात
आसानी से ।
माँ ,जो दुलारती है अपने बच्चे को ।
रोने पर ....सोने पर--- जगाती है ,
दिखाती है राह , कही खोने पर ।
छोटा नही होने देती अपने वश भर
अपनी सन्तान को-कभी ,... कहीं भी ।

मातृभाषा, धरती है ।
धरती के उर्वरांचल में ही
उगती हैं, लहलहाती हैं
सपनों की फसल ।
वन-उपवन, पहाड--नदियाँ
समुद्र और खाइयाँ
टिके हैं आराम से ।
धरती के वक्ष पर ।
धरती पर ही तो टिका सकता है कोई भी
अपने पाँव मजबूती से ।
और तय कर सकता है लम्बी दूरी

मातृभाषा, अपने घर का आँगन
जहां कोने--कोने में रची-बसी है
गभुआरे बालों की खुशबू ।
दूधिया हँसी की चमक
अपना आँगन , जहाँ सीखते हैं सब , 
सर्वप्रथम, बोलना , किलकना
चलना , थिरकना
दूसरी भाषा के आकाश में
पंछी उडतो सकता है,लेकिन खाने--पीने के लिये 
बैठने--सोने के लिये
उसे उतरना होता है जमीन पर ही ।

हिन्दी हमारी मातृभाषा, 
हमारी अस्मिता और सम्मान 
सही पता और पहचान ।
पत्र मिला करते हैं हमेशा
सही पते पर ही



सोनू के लिये


15 अक्टूबर 1974----12 अगस्त २०१०---


सोनू ,मेरी जेठानी जी का मँझला बेटा ,जो एक माह पहले सबको छोड कर, अन्तहीन पीडा देकर हमेशा के लिये चला गया ।

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सुबह ने अभी-अभी ही तो ,

तेरे नाम लिखी थी ---

आसमां भर धूप...।

जागती आँखों में सजाए थे ,

पंखुडियों से ख्बाब. ।

फिर क्यों चुन लिया तूने,

धूप में नहाया ...

अपना शहर छोड कर ।

एक अनजान गुफा का

अन्तहीन अँधेरा ।


भूल गया ---अपने बूढे पिता की ,

धुँधलाई आँखों की बेवशी ।

तूने एक बार ,सोचा भी नहीं ,

कि,उनके थके--झुके कन्धे ,

कैसे ढोएंगे उम्मीदों का मलबा ।

कैसे पढेंगे , अनन्त- पेजों वाला

तेरे बिछोह का अखबार ,

उनका चश्मा तो खोगया ,

तेरी यादों के ढेर में ही ...।

वक्त गुजरेगा कैसे ...

ताकते सिर्फ , सूना आसमान ...।


काश तू आकर देख लेता कि,

माटी की पुरानी दीवार सी ,

भरभरा कर गिर पडी है तेरी माँ ।

बैठी रहती थी थाली परसे ,

देर रात ...तेरे आने तक ।

तूने देखा नहीं कि ,

तुझे रोकने के लिये ,

दूर तक ....तुझसे ,

लिपटा चला गया है

उसकी आँतों का जाल ।

पेट से निकल कर

कलेजा थामे पडी है वह

लहूलुहान ।


पीडा के गहरे सागर में ,

हाथ पाँव मारती तेरी संगिनी ,

हैरान है ......।

भला इतनी जल्दी

कोई कैसे भूल सकता है ,

प्रथम-मिलन के समय किये गए,

तमाम वादों को

चाँद को छूने के इरादों को

तूने तो कहा था कि ,

तैरना आता है तुझे अच्छी तरह ।

भला, .... जिन्दगी से ,

कोई रूठता है इस तरह ...।

और नाराज होता है इस तरह...

कोई अपनों से ,

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रविवार, 5 सितंबर 2010

प्राथमिक शाला की शिक्षिका का एक गीत
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अपने तेतीस वर्ष के सेवाकाल में प्रारम्भ के दस वर्ष मैंने प्रा. वि. में बिताए थे । मैं स्वयं को आदर्श या परिपूर्ण शिक्षिका तो नही मानती ,पर मुझे जो कुछ करने मिला उसे पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश जरूर करती हूँ । कम से कम अपने विद्यार्थियों का स्नेह तो मुझे भरपूर मिलता रहा । लेकिन जो सन्तुष्टि व आनन्द मुझे प्राथमिक कक्षाओं , विशेषतः पहली-दूसरी कक्षाओं को पढाने में मिला वह फिर कभी नहीं मिला । वे मेरे अध्यापन काल के सबसे खूबसूरत साल थे । मासूम बच्चों केबीच,बच्चाबन कर पढाने का उन्हें कुछ सिखा पाने का अहसास अनौखा था ।आज बडे विद्यार्थी भी
मासूम ही हैं पर उन्हें प्राथमिक कक्षाओं में जो सीख लेना चाहिये था , नही सीख सके और अबपाठ्यक्रम और परीक्षा परिणाम का दबाब न तो उन्हें और न ही शिक्षक को कुछ सिखाने का अवकाश देता है खींच तान कर किसी तरह पाठ्यक्रम पूरा होगया तो बहुत समझो । दरअसल पढाई का उद्देश्य केवल
परीक्षा परिणाम पर केन्द्रित होगया है । हमारी शिक्षा-व्यवस्था इसके लिये काफी हद तक जिम्मेदार है । खैर इस विषय में फिर कभी ..। अभी तो उस गीत और गीत के बारे में पढें । जब मैं प्रा. वि. तिलौंजरी में बहुत छोटे बच्चों को पढाती थी ,मैने अपनी अनुभूतियों को अनायास ही इस गीत
में ढाल दिया था ।यह गीत सन् 1987 मई की चकमक में छपा था । वही चकमक जो आज भी एकलव्य(भोपाल )से निकल रही है ,काफी साज-सज्जा के साथ । उन दिनों उसका प्रारम्भ-काल था पर रचनाओं का स्तर कमाल का था । सम्पादक थे श्री राजेश उत्साही जी । यह अलग से लिखने का विषय है कि कैसे चकमक से ही मेरी रचनाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । और कैसे श्री उत्साही जी ने सुदूर गाँव की,... ,बाहर की दुनिया से दूर अपनी शाला तक ही सीमित एक शिक्षिका को स्रजन में मार्गदर्शन व प्रोत्साहन दिया । वे मेरे लिये किसी अच्छे शिक्षक से कम नहीं हैं । लगभग चालीस कविता- कहानियाँ उत्साही जी के सम्पादन-काल में ही चकमक में प्रकाशित हो चुकीं हैं । रचनाएं पहले भी लिखी गईं पर यह मेरी पहली प्रकाशित रचना है । कक्षा में हुई मेरी अनुभूतियों की एक साधारण, ईमानदार,और आत्मीय अभिव्यक्ति को ,जो हर समर्पित शिक्षक को समर्पित है , आप पढ कर विचार अवश्य लिखें----
चिडिया घर
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मेरी शाला है चिडिया घर ।
हँसते खिलते प्यारे बच्चे ,
लगते हैं कितने सुन्दर ।

फुदक-फुदक गौरैया से ,
कुर्सी तक बार-बार आते ।
कुछ ना कुछ बतियाते रहते ,
हरदम शोर मचाते ।
धमकाती तो डर जाते ,
हँसती तो हँसते हैं मुँह बिचका कर ।
मेरी शाला......

तोतों सा मुँह चलता रहता ,
गिलहरियों से चंचल हैं ।
कुछ भालू से रूखे मैले,
कुछ खरहा से कोमल हैं ।
दिन भर खाते उछल कूदते
सारे हैं ये नटखट बन्दर ।
मेरी शाला.....

हिरण बने चौकडियाँ भरते ,
ऊधम करते जरा न थकते ।
सबक याद करते मुश्किल से
बात--बात पर लडते--मनते ।
पंख लगा उडते हैं मानो,
आसमान में सोन कबूतर ।
मेरी शाला.....।

पल्लू पकड खींच ले जाते ।
मुझको उल्टा पाठ पढाते ।
बत्ती खोगई ...धक्का मारा..
शिकायतें पल--पल ले आते ।
और नचाते रहते मुझको ,
काबू रखना कठिन सभी पर ।
मेरी शाला....।

पथ में कहीं दीख जाती हूँ ,
पहले तो गायब होजाते ।
कही ओट से ---दीदी...दीदी...,
चिल्लाते हैं , फिर छुप जाते ।
कही पकड लेती जो उनको ,
अपराधी से होते नतसिर ।
मेरी शाला....।

जरा प्यार से समझाती हूँ ,
वे बुजुर्ग से हामी भरते ।
मनमौजी हैं अगले ही पल ,
वे अपने मन की ही करते ।
बातें मेरी भी सुनते हैं ,
पर लगवाते कितने चक्कर ।
मेरी शाला ....

गोरे , काले, मोटे दुबले ,
लम्बे नाटे ,मैले, उजले ।
रूखे , कोमल,सीधे चंचल,
अनगढ पत्थर से भी कितने ।
पर जैसे, जितने भी हैं ,
लगते प्राणों से हैं बढ कर ।
मेरी शाला है चिडिया घर । .

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गिरिजा कुलश्रेष्ठ
मोहल्ला - कोटा वाला, खारे कुएँ के पास,
ग्वालियर, मध्य प्रदेश (भारत)